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देवता: इन्द्रः ऋषि: सुकक्ष आङ्गिरसः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः काण्ड:

क꣢या꣣ त्वं꣡ न꣢ ऊ꣣त्या꣡भि प्र म꣢꣯न्दसे वृषन् । क꣡या꣢ स्तो꣣तृ꣢भ्य꣣ आ꣡ भ꣢र ॥१५८६॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

कया त्वं न ऊत्याभि प्र मन्दसे वृषन् । कया स्तोतृभ्य आ भर ॥१५८६॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

क꣡या꣢꣯ । त्वम् । नः꣣ । ऊत्या꣢ । अ꣡भि꣢ । प्र । म꣣न्दसे । वृषन् । क꣡या꣢꣯ । स्तो꣣तृ꣡भ्यः꣢ । आ । भ꣣र ॥१५८६॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1586 | (कौथोम) 7 » 3 » 7 » 1 | (रानायाणीय) 16 » 2 » 2 » 1


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

आगे पुनः जगदीश्वर, राजा वा आचार्य से प्रार्थना करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (वृषन्) मनोरथों को पूर्ण करनेवाले, मार्ग के विघ्नों को हटानेवाले जगदीश्वर, राजन् वा आचार्य ! (त्वम्) आप ही (कया) सुखदायिनी (ऊत्या) रक्षा द्वारा (नः अभि) हमारे अभिमुख होकर (प्र मन्दसे) हमें भली-भाँति आनन्दित करते हो। (कया) उसी सुखदायिनी रक्षा द्वारा, आप (स्तोतृभ्यः) आपके गुण-कर्म-स्वभाव का कीर्तन करनेवाले स्तोताओं को (आभर) आनन्द प्रदान करो ॥१॥

भावार्थभाषाः -

जगदीश्वर, राजा और आचार्य अविद्या, दुःख, दुर्गुण, दुर्व्यसन, शत्रु आदियों से यदि हमारी रक्षा करें तो वैयक्तिक और सामाजिक महान् उन्नति हो सकती है ॥१॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ पुनर्जगदीश्वरं नृपतिमाचार्यं च प्रार्थयते।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (वृषन्) कामवर्षक विघ्नविदारक जगदीश्वर, राजन् आचार्य वा ! (त्वम्) त्वमेव (कया) सुखजनिकया। [कम् इति सुखनाम। निघं० ३।६।] (ऊत्या) रक्षया (नः अभि) अस्मान् अभिमुखीभूय (प्र मन्दसे) प्रकृष्टतया आनन्दयसि। [मदि स्तुतिमोदमदस्वप्नकान्तिगतिषु, भ्वादिः।] (कया) तयैव सुखजनयित्र्या रक्षया, त्वम् (स्तोतृभ्यः) त्वद्गुणकर्मस्वभावकीर्तकेभ्यः (आ भर) मोदम् आहर ॥१॥२

भावार्थभाषाः -

जगदीश्वरो नृपतिराचार्यश्चाऽविद्यादुःखदुर्गुणदुर्व्यसनसपत्नादिभ्यो यद्यस्मान् सम्यग् रक्षेयुस्तदा वैयक्तिकी समाजिकी च महत्युन्नतिर्भवितुमर्हति ॥१॥